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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनग्रन्थरत्नाकरे. दुरन्ते दुध्यांने विरतिविरहश्चेति नियतम्। स्रवन्त्येते पुंसां दुरितपटलं जन्मभयदम् ॥ ९ ॥ भाषार्थ-~-या संसारविषै पुरुषनिकै एते परिणाम संसारके भय देनेवाला पापका समूहळू आस्रवस्वरूप करै हैं. ते कोन : प्रथम तो मिथ्यात परिणाम, बहुरि क्रोधकू आदिदे कपाय, बहुरि कामके सहचर एसे पंचइन्द्रियनिके विषयभोगनेक परिणाम, बहुरि प्रमाद विकथादिक, बहुरि मनवचनकायक योग, बहुरि व्रतरहित अविरत परिणाम बहुरि आरौिद्र अशुभ ध्यान, एते परिणाम नियम” पापास्रवकू करें हैं इनि परिणामनिका विशेषस्वरूप तत्त्वार्थसूत्रकी टीकातें जानना ऐसे आस्रवभावनाका कथन कीया । याका संक्षेप ऐसा जो यह आत्मा शुद्धनयकी दृष्टिमें तो आस्रव” रहित केवलज्ञानस्वरूप है तथापि अनादिकर्मसंबन्ध मिथ्यात्व आदि परिणामरूप परिणमै है. यात नवीन कर्म आस्रव करै है. तातै तिनि मिथ्यात्व आदि परिणाम नित निवृत्तिकरि अपने स्वरूपका ध्यान करै तब आस्रवनिने रहित होय मुक्त होय. यह आस्त्रवके कथनका आशय है ।। दोहा। आतम केवल ज्ञानमय, निश्चयदृष्टिनिहारि । सब विभाव परिणाममय, आस्रवभाव विडारि ॥ ७ ॥ इति आस्रवानुप्रेक्षा ॥ ७ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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