SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन ग्रन्थरत्नाकरे. अनेन नृशरीरेण यलोकद्वय शुद्धिदम् । विवेच्य तदनुष्ठेयं हेयं कर्म ततोऽन्यथा ॥ २८ ॥ भाषार्थ - या प्राणीकूं इस मनुष्यशरीरकार जो दोऊं लोकविधै शुद्धताका देनेवाला कार्य विचार कर अर तिसकूं आचरण करना अर तिस विरुद्ध कार्य होय सो छोउना यह सामान्य उपदेश है || आगे कहै हैं जे असें न करे हैं ते कहा करे हैं, वर्द्धयन्ति स्वघाताय ते नूनं विषपादपम् । नरत्वेऽपि न कुर्वन्ति ये विवेच्यात्मनेहितम् ॥ २९ ॥ भाषार्थ - - ये पुरुष सर्व विचारविषै समर्थ अर जाका फेरि पावना दुर्लभ है ऐसा मनुष्यपणा पायकार भी विचारि करि निश्चयकरि अपने घा फिर अपना हित नाही करें हैं ते तके अर्थ विषके वृक्षकं बधा है. पापकर्म हैं सो विषका वृक्षवत् है सो याके फल मारनेवाले ही हैं || आगें प्राणीनिका उपजना कुलविषै है ताका दृष्टान्त दिखावे हैं, -- यद्वद्देशान्तरादेत्य वसन्ति विहगा नगे । तथा जन्मान्तरान्मूढ ! प्राणिनः कुलपादपे ॥ ३० ॥ भाषार्थ — जैसे पक्षी हैं ते अन्य देशनिमूं आय करि वृक्षविषै बसे हैं तैसें हे मूढ पाणी ! ए प्राणी हैं ते अन्य जन्मसं आय कुलरूपी वृक्षविषै बसें हैं ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy