SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. दबावै तब सर्व अपना काम छोडि ताकी सहायका विचार करै सो यह प्राणी कालकरि हणते प्राणीनिकू देखिकर भी भोगनिमैं रमै है सो यह निर्दयी है अर निर्लज्ज है ॥ स्नग्धरा छन्द । पाताले ब्रह्मलोके सुरपतिभवने सागरान्ते वनान्ते दिक्चक्रे शैलशृङ्गे दहनवनहिमध्वान्तवज्रासि दुर्गे। भूगर्भे सन्निविष्टं समदकरिघटा संकटे वा बलीयान् कालोऽयं क्रूरकर्मा कवलयति बलाज्जीवितं देहभाजाम् भाषार्थ—यह काल है सो क्रूरकर्मा है दुष्ट है अर ब. लवान है दुर्निवार है सो प्राणीनिका जीवित है ताहि जबरीतें ग्रासीभूत करै है. पातालविषै ब्रह्मलोकविषै इन्द्रके भवनविषै समुद्र के अन्तविषै बनके अन्तविषै दिशानिके समूहविषै पर्वतके शिखरविषै, अग्निविषै जलविषै पालाविषै अन्धकारविषै वज्रमयी स्थानविषै षड्नके निवासविषै गढकोटविषै भूमिके गर्भविषै मदसहित हस्तीनिकी घटाका संघट्टविषै इत्यादि स्थाननिविषै नीक ( भले प्रकार ) यत्नसे बेठे हुयेकू भी ग्रासित करै है. या काल आज कहूं ही बचे नाहीं ॥ ___ अब अशरण भावनाका वर्णन पूरा करै हैं तहां संक्षेपकार कहै हैं, . शार्दूलविक्रीडित छन्दः । अस्मिन्नन्तकभोगिवऋविवरे संहारदंष्ट्राङ्किते संसुप्तं भुवनत्रयं स्मरगरव्यापारमुग्धीकृतम् । १ हिम. For Private And Personal Use Only
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy