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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ जैनग्रन्थरत्नाकरे. चक्रवर्ति ए सर्व भर अन्य भी पवन देव सूर्यकों आदिदे बलवान सारे देहधारी भाय भेले होयकरि कालके किंकर जे कालकी कला तिनिकरि आरंभ्या पकड्या जो प्राणी ताकू राखवे• क्षणमात्र भी समर्थ नाहीं है. भावार्थकोई जानैगा कि मरण राखनेवाला जगतमें कोई तो होयगा सो यह विचार मिथ्या है याः राखनेवाला कोई भी नाहीं है ॥ फेरि उपदेश दे हैं,आरब्धा मृगवालिकेव विपिने संहारदन्तिद्विषा पुंसां जीवकलानिरेति पवनव्याजेन भीतासती । त्रातुं न क्षमसे यदि क्रमपदप्राप्तां बराकीमिमां न त्वं निघृण लज्जसेऽत्र जनने भोगेषु रन्तुंसदा॥१७॥ भाषार्थ-हे मूढप्राणी ! जैसे उद्यान-वनविष मृगकी बचडीकू ( बालहिरणीकू ) सिंह पकड़नेका आरंभ करै है तब वह भयकार भागै, तैसे प्राणीनिके जीवनकी कला कालरूप सिंह भयवान् भई उच्छासके मिसकार बाहिर निकस है. वह मृगकी बचडी सिंहके पगतलै आय जाय तैसें यह पुरुषनिके जीवनकी कला कालके अनुक्रमकार अंतकुं प्राप्त भई सो तू इस निर्बलकू राखनेकू नाही समर्थ है. अर हे निर्दयी तू या जगतविषै भोगनिविषै रमनेर्ले उद्यमी होय प्रवर्ते है अर लज्जायमान न होय है सो यह बडा निर्दयीपणा है सत्पुरुष करुणावाननिकी यह प्रवृत्ति होय है जो काहू असमर्थकू समर्थ For Private And Personal Use Only
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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