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जैनग्रन्थरत्नाकरे. यजन्मनि सुखं मूढ ! यच्च दुःखं पुरःस्थितम् । तयोदुःख मनन्तं स्यात्तुलायां कल्प्यमानयोः॥ १२ ॥
भाषार्थ-हे मूढप्राणी जो कळू इस संसारमें तेरे मुख आँगैं तिष्टया सुख है, बहुरि जो किछु दुःख हैं तिनि दोउनि... ज्ञानरूप तुलामैं ( तराजूमैं ) चढाय तोलै तौ सुख दुःख अनन्तगुणा होय है यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है ॥
आगें भोगनिका निषेध हैभोगा भुजङ्गभोगामाः सद्यः प्राणापहारिणः । सेव्यमानाः प्रजायन्ते संसारे त्रिदशैरपि ॥ १३ ॥
भाषार्थ-या संसारविषै भोग हैं ते सपके फणसारिखे हैं ते देवनिकरि भी सेये हुए तत्काल प्राणनिके हरनेवाले होय हैं. भावार्थ-देव भी भोगनिकू सेवता मरिकरि एकेन्द्रिय उपजै है तौ मनुष्य तो नरकादिकविषै जाय ही जाय।
आगें या प्राणीकी अज्ञानता दिखावै हैंवस्तुजातमिदं मूढ ! प्रतिक्षणविनश्वरम् । जानन्नपि न जानासि ग्रहः कोऽयमनीषधः ॥१४॥
भाषार्थ-हे मूढ प्राणी ! या संसारविषै समस्त वस्तुका समूह है सो पर्यायकरि प्रतिक्षण विनाशीक है. यह प्रत्यक्ष अनुभवमें आवै है ताकू तू जानता संता भी न जाणै है
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