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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. परमार्थकरि तौ आत्मा अनन्त ज्ञानादि स्वरूप आप एक हैं 70 The अर संसार में अनेक अवस्था होय हैं ते कर्मके निमित्ततें है तहां भी आप तो एक ही है दूजा तो कोई साथी है नाही ऐसें एकत्वभावनाका वर्णन किया ॥ ४ ॥ दोहा. परमारथ आतमा, एकरूप ही जोय । कर्मनिमिति विकलप घने, तिनि नाशे शिव होय ॥४॥ इति एकत्वानुप्रेक्षा ॥ ४ ॥ अथ अन्यत्वानुप्रेक्षा लिख्यते. आगैं अन्यत्वभावनाका व्याख्यान करे हैं तहां शरीरादि बाह्यवस्तूनितैं आत्माकं परमार्थतें न्यारा दिखावे हैं. - अयमात्मा स्वभावेन शरीरादेर्विलक्षणः । चिदानन्दमयः शुद्धो बन्धः प्रत्येकवानपि ॥ १ ॥ अर्थ - यह आत्मा कर्मबन्धकी दृष्टिकरि देखिये तब बन्ध अर आप एकरूप है तौऊ अपने स्वभावकी दृष्टि देखिये तत्र शरीरादिकर्ते विलक्षण चैतन्य अर आनंदमयी शुद्ध परद्रव्यनित अन्य है. For Private And Personal Use Only अचिच्चिद्रूपयोरैक्यं बन्धप्रति न वस्तुतः । अनादिश्वानयोः श्लेषः स्वर्णकालिकयोरिव ॥ २ ॥ अर्थ — अचेतनकै अर चेतनकै बन्धदृष्टिकरि एकपणा है अर वस्तुतैं देखिये तब दोऊं न्यारे न्यारे वस्तु हैं एकपणा
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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