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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाठीकासहिता. ૪૧ अर्थ - ऐसे पूर्वोक्त प्रकार शरीर अर जीवकै अन्यपणा है ताकूं ए संसाररूप पिशाचकरि पीडे मूर्ख प्राणी क्यों नाही देखै है ? जो यह अन्यपणा जन्म अर मरणकार संपातविषै सर्वलोककै प्रतीतिमैं आवै है . जन्म्या तब शरीरकूं लोर ल्याया नाही मस्या तब लार ले गया नाहीं ऐसें शरीरतें जीवकै अन्यपणा प्रतीतिसिद्ध है ॥ मूतैर्विचेतनैश्वित्रैः स्वतन्त्रैः परमाणुभिः । यद्वपुर्विहितं तेन कः संबन्धस्तदात्मनः ॥ ६ ॥ भाषार्थ — मूर्तीक अर चेतनारहित अर अनेकप्रकार के पुद्गल परमाणुनिने स्वतंत्र होयकरि जो शरीर रच्या तौ तिस शरीरकरि आत्माकै कहा सम्बन्ध होय सो विचारो ! तहाँ विचार किये किछू भी सम्बन्ध नाहीं ॥ ऐसें शरीरतें अन्यपणा दिखाया तैसे ही अन्य वस्तु करि अन्यपणा दिखाने हैं, - अन्यत्वमेव देहेन स्यादभृशं यत्र देहिनः । तत्रैक्यं वन्धुभिः सार्द्ध बाहिरङ्गैः कुतो भवेत् ||७|| भाषार्थ – ऐसें पूर्वोक्त प्रकार जहां देहकरि सहित ही - प्राणी के अत्यन्त अन्यपणा है तौ बहिरंग जे बन्धु भाई कुटुंबादिक तिनिकरि सहित एकपणा काहतें होय ? ते तौ प्रत्यक्ष अन्य हैं ही || लार - पीछें व साथ । For Private And Personal Use Only
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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