Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 84
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. योगविरनिके हर्ष अर्थ होय है. भावार्थ-ए भावना पंडितनिने मुक्तिकी सखी सारिखी कही है सो योगीश्वर इनिकं भावै तब ए मुक्तिकूं मिला है. ऐसें भावनाका वर्णन किया || याका तात्पर्य ऐसा जो इस ज्ञानार्णव शास्त्रमें ध्यानका ( योगका ) अधिकार है. अर ध्यान है सो मोक्षका कारण हैं. तहां जतै संसारदेहभोगत प्राणीनिकै सचि रहै, तेतै ध्यानके सन्मुख होय नाहीं अर ए भावना हैं ते संसारदेह भोग वैराग्य उपजावनेकूं निमित्त है तातैं इनिका वर्णन पहिले किया है. तहां ए प्राणी अनादितै पर्यायबुद्धि है द्रव्यबुद्धि कदे भई नाहीं. अर पर्याय है सो अनित्य है तातें द्रव्यबुद्धि करावने पर्यायकं अनित्य दिखाई. इनितें वैराग्य ये ध्यानकी रूचि होय बहुरि यह प्राणी मोह परका वारणा चाहे जतै ध्यान होय नाहीं, तातैं परका शरणा छुडाय आपका शरण बताया. बहुरि संसार में दुख दिखाया. बहुरि आपके एकत्वपणा जनाया. बहुरि अन्यका संगत मोह उपजै तातें आपकूं अन्य जनाया. बहुरि आत्रवतें कर्मका बन्ध होना जनाया. संवरतें ध्यानकी सिद्धि जनाई. निर्जराका कारण ध्यान तथा निर्जरातें ध्यानकी वृद्धि जनाई. लोकका स्वरूप जानतें मिथ्या श्रद्धान जाय यातै लोकस्वरूप जनाया. धर्म है सो ध्यानका स्वरूप ही है या धर्मका रूप जनाया बहुरि बोधिकी दुर्लभता जनाई. याका संयोग For Private And Personal Use Only

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