Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 83
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org $. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन ग्रन्थ रत्नाकरे. भाषार्थ – इनि बारह भावनानिकरि निरन्तर रमता ज्ञानी जन है सो इसही लोकमें रोगादिककी बाधारहित अतीन्द्रिय अविनाशी सुखकूं पात्र है अर्थात् केवलज्ञानानन्द सुखकूं पावै है || आर्याछन्दः । विध्याति कषायाग्निर्विगलति रागो विलीयते ध्वान्तं । उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात् ||२|| - भाषार्थ – इनि भावनानिका अभ्यास पुरुषनिके हृद यविषै कपायरूप अग्नि है सो तो बुझि जाय है बहुरि ज्ञानरूपदीपक है सो प्रकाश होय है ॥ शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः । एता द्वादशभावनाः खलु सखे सख्यपवर्गश्रियमस्याः संगमलालसैर्घटयितुं मैत्रीं प्रयुक्ता बुधैः । एतासु प्रगुणीकृतासु नियतं मुक्त्यङ्गना जायते सानन्दा प्रणयप्रसन्नहृदया योगीश्वराणां मुदे ॥३॥ भाषार्थ -- आचार्य कहै हैं है मित्र ! ए बारह भावना हैं ते निश्चयकरि मुक्तिरूप लक्ष्मीकी सखी है. तहां जे तिस मुक्तिरूप लक्ष्मी के संगमके लालची पंडित जन हैं तिनिनै तिसकी मित्रता बनावनेकूं प्रयोगरूप ये भावना कहीं तहां इनि भावनानिकं अभ्यासरूप करते संतै निश्चय मुक्ति रूप स्त्री हैं सो आनंदसहित नेहरूप प्रसन्नहृदय भई सन्ती For Private And Personal Use Only

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