Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 81
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनप्रत्यरलाफर. है सुप्रापं न पुनपुंसां वोधिरत्नं भवार्णवे । हस्तादृष्टं यथा रत्नं महामूल्यं महार्णवे ॥१॥ भाषार्थ-यह बोधिकहिये सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रत्नत्रय है सो संसाररूप समुद्रविषै सुगम पावने स्वरूप नाहीं है याका पावना अत्यन्त दुर्लभ है. ताकू पायकरि भी जे गमावै हैं ते जैसे हाथमैं आया अमोलिक रत्न बडे समुद्रमें गिर पड़े तैसें यह गये पीछे फेरि पावना कठिन है। ___ अब या भावनाका कथन पूर्ण करै हैं तहां सामान्य. करि कहै हैं। मालिनी छन्दः । सुलभमिह समस्तं वस्तुजातं जगत्या. __ मुरगसुरनरेन्द्रैः प्रार्थितं चाधिपत्यम् । कुल बलसुभगत्वोदामरामादि चान्यत् किमुत तादिदमकं दुर्लभं बोधिरत्नम् ॥ १३ ॥ भाषार्थ-या जगती त्रिलोकीविषै समस्त वस्तुक समूह सो सुलभ है. बहुरि धरणीन्द्र नरेन्द्र सुरेन्द्रकरि प्रार्थना करनेयोग्य ऐसा अधिपतिपणा सो भी सुलभ ही है. जाते यह भी कर्मके उदयकरि मिले है. बहुरि भलाकुल बल सुभगता सुंदर स्त्री इत्यादि वस्तु सर्व ही सुलभ हैं तौ दुर्लभ कहा है जो प्रसिद्ध यह सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रस्वरूप बोधिरत्न है सो दुर्लभ है । ऐसें बोधिदुर्लभ भाव. नाका वर्णन पूर्ण किया। For Private And Personal Use Only

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