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जैनग्रंथरत्नाकरे.
मिले प्रमाद न सेवना. ऐसा उपदेश कीया. ऐसें बारह भावनाका स्वरूप जानि इनिकी भावना निरन्तर भाये ध्यान .. रुचि होय ध्यानमैं थिर भये केवलज्ञान उपजाय मोक्ष प्र. होय है ! ऐसा तात्पर्य है ॥
दोहा. ऐसें भावै भावना, शुभवैराग्य जु पाय ।
ध्यान करै निजरूपको, ते शिवपहुंचै धाय ॥१३॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचित योगनदीपाधिकारस्वरूप शानार्णवनाम संस्कृत ग्रन्थकी देशभाषामय वनिकाविष द्वादशानुप्रेक्षाका प्रकरण
समाप्त भया ।
समाप्त.
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