Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 80
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषटीकासहिता. भाषार्थ-तहां भी केई रत्नत्रयात्मक मार्ग• पायकरि भी तीत्र मिथ्यात्वरूप विषकरि व्यामूढचित भये सन्ते सम्यक् मार्गकू छोडि दे हैं ॥ . स्वयं नष्टो जनः कश्चित्कश्चिन्नष्टैश्च नाशितः । कश्चित्प्रच्यवते मार्गाच्चण्डपाषण्डशाशनैः॥९॥ माषार्थ-कोई जन तौ मार्गः आपही च्युत होय है बहुरि कोई जे अन्य, मागते च्युत भये होंय तिनिकरि नट कीजिये हैं बहुरि कोई प्रचण्ड पाखंडीनिके उपदेशे मत तिनिकरि सम्यग्मार्ग” च्युत होय हैं॥ त्यक्त्वा विवेकमाणिक्यं सर्वाभिमतसिद्धिदम् । अविचारितरम्येषु पक्षेष्वज्ञः प्रवर्तते ॥ १० ॥ भाषार्थ---मार्ग” च्युत भया जन है सो विवेकरूपी रत्न बांछित सिद्धिके देनेवाला चिन्तामणि सारिखाकू छोडि करि अर विना विचारे रमणीकसे दी ऐसे सर्वथा एकान्त पक्षनिविधै अज्ञानी प्रवते है ॥ अविचारितरम्याणि शाशनान्यसतां जनेः। अधमान्यपि सेव्यन्ते जिह्वोपस्थादिदण्डितैः॥११॥ भाषार्थ-जे जिहा अर उपस्थादि इन्द्रियनिकरि दंडे नन हैं तिनिकरि दुर्जननिके शासन मत विना परीक्षा कीये रमणीक लागै ऐसे पापरूप मार्ग हैं तिनिकू सेइये है । विषय कपाय कहा कहा अनर्थ न करावै ? For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 78 79 80 81 82 83 84 85 86