Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 82
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. याका संक्षेप ऐसा जो परमार्थकरि विचारिये तब जो पराधीन वस्तु होय सो दुर्लभ है अर स्वाधीन होय सो सुलभ है. सो यह बोधि है सो आत्माका स्वभाव है सो स्वाधीन है. अपना स्वरूप जानै तब आपहीकै पासि है सो यह दुर्लभ नाही. अर जैतै अपना स्वरूप न जानै तेतै आत्मा कर्मके आधीन है सो या अपेक्षा अपना बोधिस्वभाव पावना दुर्लभ है. अर कर्मकृत सर्व ही संसारमें मुलभ है. तहां आचार्य व्यवहारनयकी अपेक्षा बोधिका दुर्लभपणा वर्णन किया है. जो उत्तरोत्तर पर्याय पावतैं पावतें वोधिकै योग्य पर्याय पावना दुर्लभ है.अर तामैं भी वोधि पावना दुर्लभ है सो पापकरि प्रमादादिकै वशि होय याकू गमावना नाही. यह उपदेश है ॥ दोहा. वोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ नाहिं । भवमें प्रापति कठिन है, यह व्यवहार कहाहिं ॥१२॥ इति वोधिदुर्लभानुप्रेक्षा। अथोपसंहारः। अब बारह भावनाका प्रकरण पूर्ण करै हैं तहां तिनिका फल तथा महिमा कहै हैं. दीव्यन्नाभिरयं ज्ञानी भावनाभिर्निरन्तरम् ॥ इहैवाप्नोत्यनातकं सुखमत्यक्षमक्षयम् ॥ १॥ For Private And Personal Use Only

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