Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 76
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. ७१ यत्रते जन्तवः सर्वे नानागतिषु संस्थिताः ।। उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते कर्मपाशवशङ्गताः ॥ ६॥ भाषार्थ-जिस लोकमें ए प्राणी हैं ते सर्व नानागतिनिवि तिष्टे अपने कर्मरूप पाशके वशीभूत भये उपजै हैं अब लोक भावनाका व्याख्यान पूर्ण करै हैं तहां सामान्य करि कहै हैं, मालिनी छन्दः । पवनवलयमध्ये संवृतोऽत्यन्तगाद स्थितिजननविनाशालिङ्गितैर्यस्तु जातैः । स्वयमिह परिपूर्णो नादिसिद्धः पुराणः कृतिविलयविहीनः स्मर्यतामेष लोकः ॥७॥ भषार्थ-यहु लोक है सो ऐसा चितवो, कैसा ? पवनके तीनबलय तिनिके मध्य है, सो पवननिकरि वेढ्या है सो अत्यन्त दृढ वेढया है इत उत चलै नाहीं है. बहुरि स्थिति जनन विनाश कहिये ध्रौव्य उत्पात विनाश इनिकरियुक्त जे वस्तुका समूह तिनिकरि स्वयमेव परिपूर्ण है बहुरि अनादि सिद्ध है, काहूनै नवीन न रच्या है याही पुराणा है. बहुरि उत्पत्ति अर प्रलयकरि रहित है. ऐसा लोककू मनमें स्मरो एसा लोकभावनाका उपदेश है ॥ याप्रकार लोकभावनाका कथन पूर्ण किया. लोकका विशेष स्वरूप त्रिलोकसारादि ग्रन्थनितें जानना। For Private And Personal Use Only

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