Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 75
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनग्रन्थरत्नाकरे. भाषार्थ—स्रो प्रसिद्ध यह लोक काहूकरि निपजाया नाहीं है अनादिनिधन है. अन्यमती ब्रह्मादिकका निपजाया कहै हैं सो मिथ्या है. बहुरि काहुनै उद्धास्या थांम्या नाही है अन्यमती काछिवाकी पीठिपरि वा शेषनाग धास्या कहै है सो मिथ्या है. बहुरि ऐसी आशंका न करणी जो धास्या विना अधर कैसें है भग्न होय जाय जाते आधार रहित है. तौ ऊ भग्न न होय है निराधार आकाशविषै स्वयमेव तिष्ट्या अनादिनिधनः सोऽयं स्वयं सिद्धोऽप्यनश्वरः। अनीश्वरोऽपि जीवादिपदाथैः संभृतोऽनिशम् ॥४॥ भाषार्थ-सो यह प्रसिद्ध लोक है सो अनादिनिधन है स्वयंसिद्ध है अविनाशी है याका कोई ईश्वर स्वामी नाही है तौ ऊ जीव आदि पदार्थनिकरि निरन्तर भस्या है. अन्यमती या लोककी अनेकप्रकार रचनाकी कल्पना करै है सो मिथ्या है ॥ अधोवेत्रासनाकारो मध्येस्याज्झल्लरीनिमः मृदङ्गसदृशश्चाग्रे स्यादित्थं स त्रयात्मकः ॥५॥ भाषार्थ-यह लोक नीचें तो वेत्रासन कहिये मूढ़के आकार है नीचे ही नीचे चौड़ा है पीछे उपरि घटता आया है बहुरि बीचि झालरिसारीखा है बहुरि उपरि मृदंग सारिखा है दौउतरफ सँकड़ा बीचि चौड़ा ऐसा आकार है. ऐसें तीन स्वरूपकरि लोक तिष्टै है ॥ है For Private And Personal Use Only

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