Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 74
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषटीकासहिता. दोहा. दरशज्ञानमय चेतना, आतमधर्म वखानि दया क्षमादिक रतनत्रय, यामें गर्भित जानि॥१ इति धर्मानुप्रेक्षा ॥ १० ॥ अथ लोकानुप्रेक्षा लिख्यते. आरौं लोक भावनाकू कहै हैं तहां लोक स्वरूप कहै हैं. यत्र भावा विलोक्यन्ते ज्ञानिभिश्चैतनेतराः। जीवादयः स लोकःस्यात्ततो लोकोनभःस्मृतः ॥१॥ अर्थ-जहाँ जेते आकाशविषै जीवकू आदिदेकर चेतन अर अचेतन पदार्थ ज्ञानीनिकर देखिये हैं सो लोक है. तातें. परे एक आकाश है सो अलोक है। वेष्टितः पवनैः प्रान्ते महावेगैर्महाबलैः। त्रिभिस्त्रिभुवनाकीणों लोकस्तालतरुस्थितिः ॥२॥ भाषार्थ-यह लोक है सो अंतविषै सर्वतरफ महान है बेग जिनिका महानही है बल जिनिमैं ऐसे तीन पवन जे बात वलय तिनिकरि बेढ्या है. बहुरि तीन भुवन जे तिनिकरि व्याप्त है. बहुरि ताल वृक्षकी ज्यों है स्थिति जाकी नीचैलें पेड किंछु चौड़ा बीचि सरल उपरि विस्ताररूप ऐसा आकार निःपादितः स केनापि नैव नैवोद्भुतस्तथा । न भन्नः किं त्वनाधारो गगने स स्वयं स्थितः॥३॥ For Private And Personal Use Only

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