Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 77
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन ग्रन्थरत्नाकरे. याका संक्षेप ऐसा जो यह लोक जीव आदि अनन्त द्रव्य निकी रचना है ते सर्व द्रव्य अपने अपने स्वभावकूं लिये न्यारे न्यारे तिष्ठै हैं तिनिमैं आप आत्मद्रव्य है ताका स्वरूप यथार्थ जाणि अन्यसूं ममत निवारि आत्मभावना करणी. यह परमार्थ है. व्यवहारकरि सर्व द्रव्यनिका यथार्थ स्वरूप जानना यातें मिथ्या श्रद्धान मिटै है ऐसें लोकभावनाका चि. तवन करना ॥ ११ ॥ दोहा. लोकस्वरूप विचारिर्के, आतमरूप निहारि । परमार्थ व्यवहारमुणि मिथ्याभाव निवारि ॥ ११ ॥ इति लोकानुप्रेक्षा ॥ ११ ॥ अथ बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा लिख्यते । आगैं बोधिदुर्लभ भावनाका व्याख्यान करे हैं. तहां निगोद तैं लगाय सम्यग्ज्ञान पावनें ताई उत्तरोत्तर पावना दुर्लभ कहै हैं, दुरन्तदुरितारातिपीडितस्य प्रतिक्षणम् । कृच्छान्नरकपातालतलाज्जीवस्य निर्गमः ॥ १ ॥ भाषार्थ - यह प्राणी संसारविषै दूरि है अंत जाका ऐसा पापरूप वैरीकरि निरन्तर पीडित है तहां प्रथम तो नरक तलें पाताल मैं निगोद हैं तहां तैं या जीवका निकशना कहां होय ? अर्थात् नित्य निगेदतैं निकसना कठिन है ! १ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र इस रत्नत्रयको बोधि कहते हैं | For Private And Personal Use Only

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