Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 63
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनग्रन्थरत्नाकरे. भाषार्थ -- यह निर्जरा है सो सकाम अर अकाम भेदकर देहधारी निकै दोयप्रकार है तामैं पूर्वा कहिये पहली सकाम निजरा है सो तो संयमी मुनिनिकै होय है बहुरि दूसरी अकाम है सो सर्व प्राणीनिकै होय है. विना तपश्चरणादिके स्वयमेव निरंतर कर्म उदय रस देय क्षरे है । पाकः स्वममुपायाच्च स्वात्कलानां तरोर्यथा । तथात्रकर्मणां ज्ञेया स्वयं स्वोपायलक्षणा || ३ || भाषार्थ - या लोकविषै जैसे वृक्षनिक फलीनका पकना है सो स्वयमेव आपही भी होय है और उपाय जो पालमें देना तिसतें भी होय है. तैसे ही कर्मनिका पाक ( पचना ) होय है. अपने आप ही स्थितिपूरी भये पकि खिर जाय है तथा उपाय जो सम्यग्दर्शनादिसहित तपश्चरणतैं भी पकि क्षैरे है. ऐसें स्वयं और सोपायस्वरूप दोयप्रकार पचना जानना || विशुद्धयति हुताशेन सदोषमपि काञ्चनम् । यद्वत्तथैव जीवोऽयं तप्यमानस्तपोऽग्निना ॥ ४ ॥ भाषार्थ - सुवर्ण है सौ अग्निकरि तपाया वा विशुद्ध होय है दोष सहित होय तौ भी ताका दोपनिकसिजाय है तैसे ही यह जीव है, सो भी दोषनिकरि सहित है सो भी तपरूप अग्निकरि तपाया हूवा विशुद्ध होय जाय है || चमत्कारकरं धीरैर्बाह्य माध्यात्मिकं तपः । तप्यते जन्मसन्तानशङ्कितैरार्यसूरिभिः ॥५॥ भाषार्थ -- ऐसें पूर्वोक्त निर्जराका कारण तपकूं जाणि For Private And Personal Use Only

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