Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 65
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६० जैनग्रन्थरत्नाकरे. ध्यानानलसमालीढमप्यनादिसमुद्भवम् । सद्यः प्रक्षीयते कर्म शुद्धयत्यङ्गी सुवर्णवत् ॥ ८ ॥ भाषार्थ-कर्म है सो अनादिकालौं उपज्या है तोङ ध्यानरूप अग्निकार स्पा हूवा तत्काल क्षय होय है. ताके क्षय होते जैसैं अग्निकरि सुवर्ण शुद्ध होय है तेसैं प्राणी तपकरि कर्मका नाश भये शुद्ध होय है। अब निर्जराका कथन पूर्ण करै हैं सो सामान्यकरि कहै हैं, स्रग्धराछन्दः। तपस्तावद्वाह्यं चरति सुकृती पुण्यचरितस्ततश्चात्माधीनं नियतविषयं ध्यानपरमं । क्षपत्यन्तीनं चिरतरचितं कर्मपटलम् ततो ज्ञानाम्भोधिं विशति परमानादनिलयं ॥९॥ भाषार्थ-पवित्र है आचरण जाकै ऐसा सुकृति सत्पुरुप है सो प्रथम तौ बाह्यका तप है अनशनादिक ताहि आचरै है ता पीछे आत्माधीन अंतरंग तप है ताहि आचरे . तिसमैं नियत है विषय जाका ऐसा ध्यान नामा तप हे सो उत्कृष्ट है ताहि आचरै है. तिस तपते घणे कालका संचयरूप भया जो अन्तरंगविषै कर्मका पटल ताहि क्षेपै है क्षय करै है. घातिकर्मका नाश करै है. ता पीछे ज्ञानरूप समुद्रविषै प्रवेश करै है कैसा है ज्ञानसमुद्र ! परम आनंद अतीन्द्रिय जो सुख ताका निवास है। ऐसे निर्जरा भावनका कथन पूर्ण कीया ॥ For Private And Personal Use Only

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