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जैनग्रन्थरत्नाकरे. __ भाषार्थ-धर्म ही एक शरणीभूत है ऐसा है चित्तजिनिका तिनिके चरण कमलनिकी पंक्ति• देवनिके इन्द्र हैं ते नमस्कार करै हैं. कैसे भये? नमे हैं मस्तक जिनिके ऐसे भये सन्ते । भावार्थ--धर्मके माहात्म्य तीर्थकर पदवी पावै तिनि• इन्द्र भी आय नमै है ॥
धर्मो गुरुश्च मित्रं च धर्मः स्वामी च बान्धवः । अनाथवत्सलः सोऽयं स त्राता कारणं विना ॥११॥ भाषार्थ-धर्म है सो गुरु है बहुरि मित्र भी धर्म ही है स्वामी भी धर्म ही है बहुरि बान्धव हितू भी धर्म ही है. बहुरि अनाथ जाका कोई स्वामी नाहीं ताका वत्सल प्रीतिः रक्षा करनेवाला स्वामी भी धर्म ही है. बहुरि सो यह धर्म ही विनाकारण रक्षा करनेवाला है या प्राणीकू अन्य शरणा वृथा है ॥ धत्ते नरकपाताले निमज्जज्जगतां त्रयं । यो जयत्यपि धर्मोऽयं सौख्यमत्यक्षमङ्गिनां ॥१२॥ ___ भाषार्थ-यह धर्म है सो नरकके तलैं पाताल निगोद है ताविषै डूबता जो जगतका त्रिक-तीन लोकके प्राणी तिनिळू धत्ते कहिये धारण करै है पड़ते• आधार होय है। बहुरि केवल धारै ही नाहीं है प्राणीनिळू अतीन्द्रियसुखयुक्त भी करै है धर्म ऐसा है ॥
नरकान्धमहाकूपे पतितां प्राणिनां स्वयम् । धर्म एव स्वसामर्थ्याहत्ते हस्तावलम्बनम् ॥१३॥
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