Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 70
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. ६५ __ भाषार्थ-बहुरि यह धर्म है सो ही प्राणीनिकू नरकरूप महाअन्धकूपविषै आप आप पड़तेनिकू अपनी सामर्थ्य हस्तावलम्बन दे है पड़तनिकू थांभै है ॥ महातिशयसंपूर्ण कल्याणोदाममन्दिरम् । धर्मो ददाति निर्विघ्नं श्रीमत्सर्वज्ञवैभवम् ॥१४॥ भाषार्थ-धर्म है सो महान् अतिशयनिकरि पूर्ण अर कल्याणनिका उत्कट निवास ऐसी लक्ष्मीकरि सहित सर्वज्ञका विभव निर्विघ्नपणे दे है । तीर्थंकरकी पदवी दे है ॥ याति सार्ध तथा पाति करोति नियतं हितं । जन्मपकात्समुद्धृत्य स्थापयत्यमले पथि ॥१५॥ भाषार्थ-धर्म है सो प्राणीकै परलोकविषै साथि जाय है तथा रक्षा करै है. तथा नियमकरि हित ही करै है। बहुरि संसाररूप कर्दमते काढि निर्मल मार्ग जो शुद्ध मोक्षमार्ग ताविषै स्थापै है ॥ न धर्मसदृशः कश्चित्सर्वाभ्युदयसाधकः । आनन्दकुजकन्दश्च हितः पूज्यः शिवप्रदः ॥१६॥ भाषार्थ-या जगतविषै धर्मसारिखा अन्य कोई सर्व अभ्युदयका साधक नाहीं है मनोवांछित सम्पदाका देने वाला यह ही है। कैसा है आनंदरूप वृक्षका तौ कन्द है आनंदके अंकूरे इसहीतै उपजै हैं बहुरि हितरूप अर पूजनीक अर मोक्षका दाता यह धर्म ही है अन्य नाहीं है ॥ For Private And Personal Use Only

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