Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 68
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. ६३ सथावर जीवनिकं राखै है रक्षा करे है. बहुरि सुखरूप अमृत जलके प्रवाहकार समस्त जगतकूं तृप्ति करे है || पर्यन्यपवनार्केन्दुधराम्बुधिपुरन्दराः । अमी विश्वोपकारेषु वर्त्तन्ते धर्मरक्षिताः ॥ ७ ॥ भाषार्थ - मेघ पवन सूर्य चन्द्रमा पृथिवी समुद्र इन्द्र ए सर्व पदार्थ हैं ते जगतके उपकारविषै प्रवर्तें है ते धर्मके राखे हुये प्रवर्त्ते है धर्म विना ये उपकारी नाहीं होय है ॥ मन्येऽसौ लोकपालानां व्याजेनाव्याहतक्रमः । जीवलोकोपकारार्थं धर्म एव विजृम्भितः ||८|| भाषार्थ - आचार्य कहै हैं जो मैं ऐसें मानू हूं जो ए इन्द्रादिक लोकपाल अथवा राजादिक हैं तिनिका मिस करि लोकनि उपकारकै अर्थ धर्म ही विस्तस्या है. कैसा है धर्म? अव्याहत है क्रम कहिये व्यापार रूप प्रवर्त्तना जाकी, याका किया उपकार कोऊ मेटि सकै नाहीं है | न तत्रिजगतीमध्ये भुक्तिमुक्त्योर्निबन्धनम् । प्राप्यते धर्मसामर्थ्यान्नयद्यमितमानसैः ॥ ९ ॥ भाषार्थ - इस तीन जगतकै मध्य भोग अर मोक्षका कारण ऐसा कोऊ नाहीं है जो धर्मकूं प्राप्त है मन जिनिका ऐसे पुरुषनिकारि धर्मकी सामर्थ्य न पाइये है, या धर्मकी सामर्थ्य सर्वमनोवांछित पाइये है | नमन्ति पादराजीवराजिकां नतमौलयः । धर्मैकशरणीभूतचेतसां त्रिदिशेश्वराः ॥ १० ॥ For Private And Personal Use Only

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