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जैनग्रन्थरत्नाकरे.
भाषार्थ - सो यह धर्म जिनेन्द्र भगवाननें दशलक्षणयुक्त
कया है. कैसा है जाका अंशकूं भी सेयकार संयमी मुनि मुक्ति पा है |
न सम्यग्गदितुं शक्यं यत्स्वरूपं कुदृष्टिभिः । हिंसाक्षपोषकैः शास्त्रैरतस्तैस्तन्निगद्यते ॥ ३ ॥
भाषार्थ - जिस धर्मका स्वरूप मिथ्यादृष्टीनिकरि हिंसा अर इन्द्रियनिके पोषनेवाले शास्त्रनिकरि कहनेकूं समर्थ न हूजिये है. तातैं याका स्वरूप यथार्थ हम कहे हैं ||
चिन्तामणिर्निधिर्दिव्यः स्वर्धेनुकल्पपादपाः । धर्मस्यैते श्रिया सार्द्ध मन्ये भृत्याश्चिरन्तनाः ॥४॥ भाषार्थ - चिन्तामणि दिव्य नवनिधि कामधेनु कल्पवृक्ष ए सर्व लक्ष्मीकरि सहित धर्मके बहुत कालतैं किंकर हैं आचार्य कहै हैं मैं असें मानू हो ॥
धर्मो नरौरगाधीशनाकनायकवाञ्छितां । आप लोकत्रयीपूज्यां श्रियं दत्ते शरीरणाम् ॥ ५ ॥
भाषार्थ — धर्म है सो चक्रवर्ति धरणीन्द्र देवेन्द्रकरि
-
- वांछित अर तीन लोककरि पूज्य ऐसी जो तीर्थकरकी लक्ष्मी ताहि प्राणी
है |
धर्मों व्यसनसम्पाते पाति विश्वं चराचरम् । सुखामृतपयः पूरैः प्रीणयत्यखिलं जगत् ॥ ६ ॥ भाषार्थ - धर्म है सो कष्टके संपातविषै समस्त
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