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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
याका संक्षेप ऐसा जो आत्माकै कर्मका संबंध अनादि कालते है. तहां यह आत्मा कालादि लब्धिका निमित्त पाय अपना स्वरूप संभारै अर तपश्चरणकरि ध्यानमें लीन होय तब संवररूप होय. आगामी कर्म न बांधै अर पूर्वकर्म आपैआप निर्जरारूप होय तब मोक्ष पावै ॥
दोहा.
संवरमय है आत्मा, पूर्वकर्म झाडि जाय । निजस्वरूपकू पायकरि, लोकशिखर तब थाय ॥९॥
इति निर्जरानुप्रेक्षा ॥ ९॥
अथ धर्मानुप्रेक्षा लिख्यते। आगे धर्मभावनाका व्याख्यान करै हैं,पवित्री क्रियते येन येनैवोद्धियते जगत् । नमस्तस्मै दयाय धर्मकल्पांहिपाय वै ॥ १॥
भाषार्थ-जिस धर्मकरि जगत पवित्र कीजिये अर जिसहीकरि उद्धारिये तिस धर्मरूप कल्पवृक्षकेअर्थि न. मस्कार होहु, कैसा है धर्मरूप कल्पवृक्ष ? दयाकरि आर्द्रित है. डह डहा है. ऐसे धर्मकी बडाई करि आचार्यने नमस्कार किया है।
दशलक्ष्मयुतः सोऽयं जिनधर्मः प्रकीर्तितः । यस्यांशमपि संसेव्य विन्दन्ति यमिनः शिवम् ॥२॥
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