Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 61
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनग्रन्थरत्नाकर. विहाय कल्पनाजालं स्वरूपे निश्चलं मनः । यदा धत्ते तंदैवस्यान्मुनः परमसंवरः ॥ ११ ॥ भाषार्थ-जिसकाल सर्वकल्पनाका जालकू छोडि अ. पने स्वरूपकेविषै मनकू निश्चित थांमै तिसही काल मुनिकै परम संवर होय है ।। आगें संवरका कथन पूर्ण करै हैं. तहां संवरकी महिमा मालिनी छन्द। सकलसमितिमूलः संयमोदामकाण्डः प्रशमविपुलशाखो धर्मपुष्पावकीर्णः । अविकलफलबन्धैर्वन्धुरो भावनाभि जयति जितविपक्षः संवरोद्दामवृक्षः ॥ १२ ॥ भाषार्थ-यह संवररूप उत्कृष्ट वृक्ष है सो सर्वोत्कर्ष करि वर्ते है कैसा है? ईर्यासमितिकू आदि पांचसमिति सो है मूल जाकै. बहरि सामायिक आदि समय सा ही है स्कन्ध जाकै, बहुरि प्रशम कहिये विशुद्ध भाव सोही है विस्तीर्णा शाखा जाकै, बहुरि उत्तम क्षमादिक धर्म, सो ही भये फूल, तिनिकरि व्याप्त है. बहुरि बारह भावना तिनिकरि बंधुर है सुंदर है. कैसी है भावना ? अविकल है फलका बंध जिनितें. जैसे फलके वीट गाढा होय तौ फलकू पड़ने न दे, तैसैं भावनाका भावना है सो संवरके फल• दृढ करै है। ऐसे संवरभावनाका व्याख्यान किया । For Private And Personal Use Only

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