Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 60
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. ५५ निराकरण करै हैं. बहुरि मिथ्याभावकू निर्ममत्त्वकरि अर सम्यग्दर्शनके योगकरि निराकरण करै हैं । अविद्याप्रसरोद्भूतं तमस्तत्त्वावरोधकम् । ज्ञानसूर्यांशुभिर्वाद स्फेटयन्त्यात्मदर्शिनः ॥८॥ भाषार्थ-आत्माके देखनेवाले मुनि हैं ते अविद्याका फैलावकरि उपज्या अर तत्त्वज्ञानका रोकनेवाला ऐसा अज्ञानरूप अंधकारकू ज्ञानरूप सूर्यके किरणनिकरि अतिशयकरि दूरि करै हैं॥ असंयमगरोद्गारं सत्संयमसुधाम्बुभिः । निराकरोति निःशङ्कं संयमी संवरोद्यतः॥९॥ भाषार्थ-संवरकैविषै उद्यमी संयमी पुरुष हैं सो असंयमरूप जहरका उद्गार है ताहि सम्यक्संयमरूपी अमृतमयी जलनिकरि दूरि करै हैं यामें संशय नाही । द्वारपालीव यस्योच्चैर्विचारचतुरा मतिः । हृदि स्फुरति तस्याघसूतिः स्वप्नेऽपि दुर्घटा ॥१०॥ भाषार्थ-जा पुरुषकै अतिशयकरि विचारके विषै चतुर ऐसी बुद्धि हृदयविष स्फुरायमान है ताके हृदयविषै पापकी उत्पत्ति स्वप्नविषै भी दुर्घट है. नाही प्रवत्र्त है. कैसी है बुद्धि द्वारपालीकी ज्यों है. जैसे द्वारै चतुर स्त्री तिष्टै सो मंदिरमैं मलिनकू प्रवेश नाही करने दे, तेसैं यह बुद्धि पापकू प्रवेश न करनै दे है ॥ . अब संक्षेप करि कहै हैं,-- For Private And Personal Use Only

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