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जैन ग्रन्थ रत्नाकरे.
भाषार्थ – संयमी मुनि है सो संसारनिमित्त क्रियातें विरतिरूप संवरयुक्त है आत्मा जाका ऐसा भया सन्ता असंयममयी वाणनिकरि भेद्या न जाय है. जैसे संग्रामके संघट्टमैं भलेप्रकार सज्या सुभट है सो वाणनिकर भेद्या न जाय तैसें जानना ॥
अब आस्रवनिके रोकने का विधान कहै हैं,
जायते यस्य यः साध्यः स तेनैव निरुध्यते । अप्रमत्तः समुयुक्तः संवरार्थं महर्षिभिः || ५ || भाषार्थ - प्रमादरहित अर संवरके अर्थ उद्यमी ऐसे महामुनिनिकरि जो जाकै साध्य होय है ताहीकरि सो रोकिये है. भावार्थ- जाकार आस्रव होय ताका प्रतिपक्षी भावकरि सो रोकिये सो ही आगे कहै हैं,
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क्षमा क्रोधस्य मानस्य मार्दवत्वार्जवं पुनः । मायाया संगसंन्यासो लोभस्यैते द्विपः क्रमात् ॥ ६ ॥
माषार्थ - क्रोध कषायका तौ क्षमा शत्रु है. बहुरि मानकषायका मृदुभाव - कोमलपणा शत्रु है. बहुरि मायाकषायका ऋजुभाव सरलभाव शत्रु है. बहुरि लोभकषायका परिग्रहका त्याग शत्रु है. ए अनुक्रमतें जानने ||
रागद्वेषौ समत्वेन निर्ममत्वेन वानिशम् । मिथ्यात्वं दृष्टियोगेन निराकुर्वन्ति योगिनः||७|| भाषार्थ - योगी ध्यानी मुनि हैं ते रागद्वेषकूं तो निरन्तर समभावकरि निराकरण करे हैं अथवा निर्ममत्वकरि
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