Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 58
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषीकासहिता. अथ संवरानुप्रेक्षा लिख्यते । आगे संवरभावनाका व्याख्यान करै हैं. तहां संवरका स्व. रूप कहै हैं,सर्वास्रवनिरोधो यः संवरः स प्रकीर्तितः। द्रव्यभावविभेदेन स द्विधा भिद्यते पुनः ॥ १॥ भाषार्थ--जो सर्व आस्रवनिका निरोध सो संवर कह्या है. ऐसे तो सामान्यकरि एक ही प्रकार है. बहुरि सो ही सं. वर द्रव्यभावके भेदकरि दोयप्रकार भेदरूप कीजिये हैं । ___ अब दोय भेदनिका स्वरूप कहै हैं,यः कर्मपुद्गलादानविच्छेदः स्यात्तपस्विनः। स द्रव्यसंवरः प्रोक्तो ध्याननिधूतकल्मषैः ॥ २॥ भाषार्थ-जो तपस्वी मुनिनिकै कर्मरूप पुद्गलनिका ग्रहणका विच्छेद होय सो द्रव्यसंवर है ऐसें ध्यानकरि उडाये हैं पाप जिनिनै ऐसे मुनिनिनै कह्या हैं । या संसारनिमित्तस्य क्रिया या विरतिः स्फुटं । स भावसंवरस्तज्ज्ञर्विज्ञेयः परमागमात् ॥ ३ ॥ भाषार्थ---जो संसारका कारण कर्मका ग्रहण, ताकी क्रियाकी विरति कहिये अभाव, सो प्रगट भावसंवर है. ऐसे तिस संवरके ज्ञातानिकरि परमागमतें जानने योग्य है । असंयममयैर्वाणैः संवृतात्मानभिद्यते । यमी यथा सुसंन्नद्धो वीरः समरसंकटे ॥ ४ ॥ For Private And Personal Use Only

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