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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
अपवादास्पदीभूतमसन्मार्गोपदेशकम् । पापासवाय विज्ञेयमसत्यं परुषं वचः ॥६॥
भाषार्थ---अपवाद निंदाका तौ ठिकाणा अर मिथ्यामार्गका उपदेश करणेवाला अर असत्य अर कठोर काननिते सुणते ही परकै कषाय उपजै तथा परका जाकरि बुरा होय एसा वचन है सो अशुभ आस्रवके अर्थि जानना ।।
सुगुप्तेन स्वकायेन कायोत्सर्गेण वानिशम् । संचिनोति शुभं कर्म काययोगेन संयमी ॥ ७॥
भाषार्थ—सम्यक्प्रकार गुप्तिरूप किया अपने वश कीया जो काय ताकरि, अथवा निशदिन कायोत्सर्गकरि संयमी मुनि है सो ऐसे काययोगकरि शुभकर्म संचै है ॥
सततारम्भयोगैश्च व्यापारैजन्तुघातकैः । शरीरं पापकर्माणि संयोजयति देहिनाम् ॥ ८॥
भाषार्थ--निरन्तर आरंभके हैं योग जिनिमें बहुरि जीवनिक घात करनेवाले ऐसे व्यापारनिकरि यह शरीर है सो प्राणीनिके पापकर्म जो अशुभकर्म तिनहि जोडै है. यह काययोगकरि अशुभ आस्रव कह्या ॥ __ अब आस्रवका व्याख्यान पूरा करै हैं, तहाँ सामान्यकरि कहै हैं,---
शिखरिणी छन्दः कषायाः क्रोधाद्याः स्मरसहचराः पञ्चविषयाः प्रमादा मिथ्यात्वं वचनमनसी काय इति च ।
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