Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 55
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनग्रन्थरत्नाकरे. भाषार्थ-जैसैं समुद्रकैमध्य जिहाज है सो छिद्रनिकरि जलकुं ग्रहण करै है, तैसैं जीव है सो योगरूप छिद्रनिकरि कर्मकू ग्रहण करै है. कैसे हैं योग ? शुभ अशुभ भेदकरि दाय प्रकार हैं । यमप्रशमनिर्वेदतत्त्वचिन्तावलम्बितम् । मैत्र्यादिभावनारूढं मनः सूते शुभास्रवं ॥ ३ {{ भाषार्थ-यम कहिये अणुव्रत महाव्रत, प्रशम कहिये कषाययनिकी मंदता निवेद कहिये संसारसों वैराग्य तथा धर्मानुराग अर तत्त्वनिका चिन्तवन इनिका आलम्बनयुक्त मन होय तथा मैत्री प्रमोद करुणाभाव मध्यस्थभाव ए मनविले भावना होय ऐसा मन है सो तो शुभास्रवकू उपजावै है ।। कषायदहनोद्दीप्तं विषयाकुलीकृतम् संचिनोति मनः कर्म जन्मसंवन्धसूचकम्॥ ४॥ भाषार्थ-कषायरूप अग्निकरि प्रज्वलित अर इद्रियनिके विषयनिकरि व्याकुल ऐसा मन है सो संसारके संबन्धका सूचक अशुभ कर्मका संचय करै है। विश्वव्यापारनिर्मुक्तं श्रुतज्ञानावलम्बितम् । शुभास्त्रवाय विज्ञेयं वचः सत्यप्रतिष्ठितम् ॥ ५ ॥ भाषार्थ-समस्त अन्यव्यापारकरि रहित अर श्रुत ज्ञानका अवलम्बनयुक्त अर सत्यरूप प्रतिष्ठावान् जाडूं कोई निदै नहीं ऐसा वचन है सो शुभास्रवकेअर्थि होय है ।। For Private And Personal Use Only

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