Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 53
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४८ www.kobatirth.org जैन ग्रन्थरत्नाकरे. आर्याछन्दः । कर्पूरकुंकुमागुरुमृगमदहरिचन्दनादिवस्तूनि । भव्यान्यपि संसर्गान्मलिनयति कलेवरं नृणाम् ॥१२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषार्थ - कपूर केशरि अगुरु कस्तूरी हरिचन्दन इत्यादि सुगन्ध वस्तु हैं ते भले सुन्दर हैं तिनिकूं भी यह मनुष्यनिका शरीर है सो संसर्गतैं मलिन करे है. आप तो मलिन है ही परन्तु संसर्गतैं भली वस्तूनिकूं भी मलिन करें है यह अधिकता है | - अब अशुचि भावनाका कथनकूं पूर्ण करे हैं तहां सा मान्यकरि कहै हैं, • मालिनी छन्दः । अजिनपटलगूढं पञ्जरं कीकसानाम् कुथितकुणिपगन्धैः पूरितं मूढ गाढं । यमवदननिखिन्नं रोगभोगीन्द्र गेहम् कथमिह मनुजानां प्रीतये स्याच्छरीरम् ॥१३॥ भाषार्थ हे मूढ प्राणी ! इस संसारविषै यह मनुष्यनिका शरीर है सो कैसा है, चर्मके पटलकरि तौ ढक्या है बहुरि हानिका पींजरा है. बहुरि बिगडी राधिकी दुर्गन्ध करि पूर्ण गाढ़ा अतिशयकरि भरचा है. बहुरि कालके मुखविषै बैठा है बहुरि रोगरूप सर्पनिका घर है. ऐसा है तो ऊ प्रीतिकै अर्थि कैसे है ! यह अचिरन है । ऐसें अशुचि भावनाका वर्णन कीया ॥ For Private And Personal Use Only

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