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जैनग्रन्थरत्नाकरे.
यद्यवस्तु शरीरेऽत्र साधुबुद्धया विचार्यते । तत्तत्सर्व घृणां दत्ते दुर्गन्धामध्यमन्दिरे ॥५॥
भाषार्थ--इस शरीरविषै जो जो वस्तु है सो सो भलेप्रकार बुद्धिकरि विचारिये तब ग्लानिका ठिकाणा है जातै यह शरीर दुर्गन्ध जो विष्टा ताका मंदिर है यामैं किळू भी पवित्र नाहीं ॥ यदीदं शोध्यते दैवाच्छरीरं सागराम्बुभिः । दूषयत्यपि तान्येव शोध्यमानमपि क्षणे ॥ ६॥
भाषार्थ-जो इस शरीरकू दैवयोगः समुद्रके नल करि भी शुद्ध कीजिये तो शोध्या हुवा तिस ही क्षणमें तिनि समुद्रके जलनिकू भी दूषण लगावै है अपवित्र दुर्गन्ध करै है. अन्यवस्तुकी कहा कथा ! कलेवरमिदं न स्याद्यदि चर्मावगुण्ठितम् । मक्षिकाकृमिकाकेभ्यः स्यात्रातुं कस्तदा प्रभुः ॥७॥
भाषार्थ-यह शरीर जो बाहिर चर्मकरि ढक्या न होय तौ मांखी कीड़ा लट कागले इनित रक्षा करने कू कौन समर्थ होय ? न होय। ऐसे शरीरकू देखि सत्पुरुष दूरि छोडै तब रक्षा कौन करे ?
सर्वदैव रुजाक्रान्तं सर्वदेवाशुचेहम् ।
सर्वदापतनप्रायं देहिनां देहपञ्जरम् ॥ ८ ॥ भाषार्थ--यह प्राणीनिका देहरूप पीजरा है सो
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