Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 50
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. असृग्मांसवसाकीर्ण शीर्ण कीकसपञ्जरं । शिरानद्धं च दुर्गन्धं व शरीरं प्रशस्यते ॥ २॥ भाषार्थ-बहुरि यह शरीर कैसा है ! रुधिर मांस वसा (चरबी ) इनिकरि तौ व्याप्त है. बहुरि शीर्ण है सिडि रह्या है. बहुरि हाडनिका पंजर है. बहुरि शिरा जे नश तिनिकरि बंध्या है ऐसें सर्वप्रकार दुर्गन्धमयी है. आचार्य कहै हैं, कि—यह शरीर कौन ठिकाणै सराहिये है ? सर्व जायगां निन्द्य ही है ॥ ' प्रस्रवन्नवभिदारैः पूतिगन्धान्निरन्तरम् । क्षणक्षयं पराधीनं शश्वनरकलेवरम् ॥ ३ ॥ भाषार्थ--यह मनुष्यनिका शरीर है सो नवद्वारनिकरि तौ निरन्तर दुर्गन्धरूप झरता रहै है. बहुरि क्षणक्षयी है थिर नाही. बहुरि पराधीन है अन्नपाणी आदिका सहाय निति चाहै है ऐसे निरन्तर अपवित्र है ॥ कृमिजालशताकीर्णे रोगप्रचयपीडिते। जराजर्जरिते काये कीदृशी महतां रतिः ॥ ४ ॥ भाषार्थ—यह काय कैसा है ? लट कीडेनिके समूहके सैंकडेनिकरि तौ भख्या है बहुरि रोगनिके समूहनिकरि पीडित है. बहुरि जरा वृद्धअवस्थाकरि जर्जरा भया है ऐसा कायविषै महन्त पुरुषनिकै कैसे रति होय ? महतपुरुष यातूं रति नाही करै है। For Private And Personal Use Only

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