Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 52
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. ४७ कैसा है सदा ही तौ रोगकरि व्याप्त है अर सदा ही अशुचिका घर है अर सदा ही पड़नेके स्वभावरूप है. यह मति जानुं जो कोई काल तो भला होगा ॥ तैरेव फलमेतस्य गृहीतं पुण्यकर्मभिः । विरज्य जन्मनः स्वार्थे यैः शरीरं कदर्थितम् ॥ ९ ॥ __ भाषार्थ--इस शरीरके पावनेका फल तिनि. लिया ने संसारनै विरक्त होयकरि आत्मकल्याण निमित्त इस शरीरकू पुण्यकार्यकरि क्षीण किया ॥ शरीरमेतदादाय त्वया दुःखं विसयते । जन्मन्यस्मिंस्ततस्तद्धि निःशेषानर्थमन्दिरम् ॥ १० ॥ भाषार्थ---हे आत्मन् ! तैं या शरीरकू ग्रहणकरि इस संसारविषै दुःखकू पाया सह्या तातै निश्चयकरि यह जानि जो यह शरीर समस्त दुःखनिका मन्दिर है याके संगरौं सुखका लेश भी मति जानै ॥ भवोद्भवानि दुःखानि यानि यानीह देहिभिः । सह्यन्ते तानि तान्युचैर्वपुरादाय केवलम् ॥ ११ ॥ भाषार्थ--या संसारविषै प्राणीनिकरि जे जे संसार ते उपजे दुःख सहिये हैं ते ते सर्व अतिशयकरि केवल एक शरीरकू ग्रहणकरि सहिये हैं, यातै निवृत्ति भये पीछे दुःख नाहीं है ॥ For Private And Personal Use Only

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