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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
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कैसा है सदा ही तौ रोगकरि व्याप्त है अर सदा ही अशुचिका घर है अर सदा ही पड़नेके स्वभावरूप है. यह मति जानुं जो कोई काल तो भला होगा ॥ तैरेव फलमेतस्य गृहीतं पुण्यकर्मभिः । विरज्य जन्मनः स्वार्थे यैः शरीरं कदर्थितम् ॥ ९ ॥ __ भाषार्थ--इस शरीरके पावनेका फल तिनि. लिया ने संसारनै विरक्त होयकरि आत्मकल्याण निमित्त इस शरीरकू पुण्यकार्यकरि क्षीण किया ॥ शरीरमेतदादाय त्वया दुःखं विसयते । जन्मन्यस्मिंस्ततस्तद्धि निःशेषानर्थमन्दिरम् ॥ १० ॥
भाषार्थ---हे आत्मन् ! तैं या शरीरकू ग्रहणकरि इस संसारविषै दुःखकू पाया सह्या तातै निश्चयकरि यह जानि जो यह शरीर समस्त दुःखनिका मन्दिर है याके संगरौं सुखका लेश भी मति जानै ॥ भवोद्भवानि दुःखानि यानि यानीह देहिभिः । सह्यन्ते तानि तान्युचैर्वपुरादाय केवलम् ॥ ११ ॥
भाषार्थ--या संसारविषै प्राणीनिकरि जे जे संसार ते उपजे दुःख सहिये हैं ते ते सर्व अतिशयकरि केवल एक शरीरकू ग्रहणकरि सहिये हैं, यातै निवृत्ति भये पीछे दुःख नाहीं है ॥
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