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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीका सहिता.
याका संक्षेप ऐसा जो आत्मा तौ निर्मल है अमूर्तीक निमित्ततैं याकै शरीरका
है ताकै मल नहीं. अर कर्मके सम्बन्ध हैं. ताकूं अज्ञान मोहकर हैं. अर यह मनुष्य का शरीर है सो ताका निवास है तातैं याविषै अशुचिभावना भावे तत्र यातें वैराग्य होय अपना निर्मल आत्मस्वरूपविषै रमनेकी रुचि होय यह अशुचिभावनाके वर्णनका आशय है. ॥
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अपनाय भला जानै सर्वप्रकार अपवित्र
दोहा.
निर्मल अपना आत्मा, देह अपावन गेह | जानि भव्य निजभावकूं, यासूं तजो सनेह ॥ ६ ॥ इति अशुचिखानुप्रेक्षा ॥ ६ ॥
अथ आस्त्रवानुप्रेक्षा लिख्यते । आगे आस्त्रवभावनाका व्याख्यान करे हैं तहां आस्रवका स्वरूप कहै हैं—
मनस्तनुवचः कर्मयोग इत्यभिधीयते ।
स एवास्रव इत्युक्तस्तत्त्वज्ञानविशारदैः ॥ १ ॥ भाषार्थ- -- मन काय वचन इनका कर्म कहिये क्रिया सो योग ऐसा कहिये है. बहुरि सो योग है सो ही आस्त्रव है. ऐसें जे तत्त्वज्ञानविषै प्रवीण हैं तिनिनै कया है भावाथ - यह स्वरूप तत्त्वार्थ सूत्रमें कया है || वार्डेरन्तः समादत्ते यानपात्रं यथा जलम् । छिद्रेर्जीवस्तथा कर्म योगरन्यैः शुभाशुभैः ॥ २ ॥
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