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द्वादशानुप्रेक्षा स्विट (कासहिताः
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ते तेरे स्वरूपकुं उलंन्यव जिमकारकरि न्यारे न्यारे तिष्ठे
हैं तिनिकूं अन्य ही भाय
करे है तहाँ सामान्य
अब अन्यत्वभावनाका कथ
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करि उपदेश करे हैं
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः ।
मिथ्यात्वप्रतिबद्धदुर्णयपथभ्रान्तेन बाह्यानलं भा - वान्स्वान्प्रतिपद्य जन्मगहने खिन्नं त्वया प्राचिरं । संप्रत्यस्तसमस्तविभ्रमभरश्चिद्रूपमेकं परं स्वस्थं स्वं प्रविगाह्य सिद्धिवनितावत्रं समालोकय ॥ १२॥
भावार्थ - हे आत्मन् । तू या संसाररूप गहन वनविषै मिथ्यात्वकरि संबंधरूप भई जो सर्वथा एकान्तरूप दुर्नय ताका मार्गविषै भ्रमरूप भयासन्ता बाह्य पदार्थनिकं अत्यर्थपणै अपने मानि अंगीकारकरि पहिले चिरकाल खेद खिन्न भया. अब अस्तभया है समस्त विभ्रमभार जाका ऐसा भया तू अपना आत्मा आपहीविषै तिष्टया ऐसा एक उत्कृष्ट चैतन्यरूप ताहि अवगाहन करि, तामैं लीन होय करि अर मुक्तिरूपी स्त्रीका मुख है ताहि अवलोकन करि देखि. भावार्थ - यह आत्मा अनादितैं पर भावनिकं अपने मानि तिनिमैं रमै है यातें संसार मैं भ्रम है ताकूं उपदेश किया है जो परभावनितैं न्यारा अपना चैतन्य भावमें लीन होय अर मुक्ति प्राप्त हो हु. यह अन्यत्व भावनाका उपदेश है. ऐसैं अन्यत्वभावनाका कथन पूरा किया ॥
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