Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 47
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनग्रन्थरत्नाकरे. ये ये सम्बन्धमायाताः पदार्थाश्चेतनेतराः । ते ते सर्वेजप सर्वत्र स्वस्वरूपाद्विलक्षणः ॥८॥ भाषार्थ-या जगतमें जे जे चेतन अर जड़ पदार्थ या प्राणीकै सम्बंधस्वरूप भये, ते ते सर्व ही सर्व जांयगां अपने स्वरूपसू विलक्षण हैं आप आत्मा सर्वते अन्य है। पुत्रमित्रकलत्राणि वस्तूनि च धनानि च । सर्वथान्यस्वभावानि भावयत्वं प्रतिक्षणं ॥९॥ भाषार्थ-हे आत्मन् ! या जगत्में पुत्र मित्र स्त्री अन्य वस्तु तथा धन तिनिळू तू सर्वप्रकारकरि अन्यस्व. भाव निरन्तर भाय, इनिविषै एकपणाकी भावना कब हू मति करै ऐसा उपदेश है ॥ अन्यः कश्चिद्भवत्पुत्रः पितान्यः कोऽपि जायते । अन्येन केनचित्साई कलत्रेणानुयुज्यते ॥१०॥ भाषार्थ---या जगतमें कोई और ही तौ पुत्र होय है. बहुरि कोई और ही पिता उपजै है. बहुरि अन्य कोई करि सहित स्त्रीका सम्बंध होय है. ऐसें सर्व ही अन्य अन्य संबंध होय हैं ॥ त्वत्स्वरूपमतिक्रम्य पृथक्पृथक्व्यवस्थिताः। सर्वेशप सर्वथा मूढ भावात्रैलोक्यवर्तिनः॥११॥ भाषार्थ-हे मूद प्राणी ! तीनलोकवर्ती सर्व ही पदार्थ हैं LC For Private And Personal Use Only

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