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जैनग्रन्थरत्नाकरे.
नाही है दोऊनिका अनादिकालमें एकक्षेत्रावगाहरूप संश्लेष है मिलाप है जैसैं सुवर्णकै अर कालिमाकै खानित लगाय एकपणा है तैसें एकपणा है वस्तु न्यारे न्यारे हैं तैसें जानू॥
इहमूर्तममूर्तेन चलेनात्यन्तनिश्चलं ।
शरीरमुह्यते मोहाचेतनेनास्तचेतनम् ॥ ३ ॥ अर्थ-इस जगतमैं मूर्तीक अर अति निश्चल अर चे. तनारहित जड़ जो यह शरीर सो अमूर्तीक अर चलनेवाला चेतन जो जीव ताकरि मोह वाहिये है चलाइये है. भावार्थ-जीवअमूर्तीक चेतन है अर मोहनै इच्छाकरि चलनेका स्वभावयुक्त है. अर शरीर मूर्तीक है अचेतन है चालनेकी इच्छारहित है ताते चल नाहीं है, ताईं जीव लियां फिरै है जैसैं मुरदाकू जीवता पुरुष लियां फिर तैसैं लियां फिरै है तहां यह जीवकै अज्ञान है ॥
अणुप्रचयनिष्पन्नं शरीरमिद मङ्गिनाम् ।
उपयोगात्मकोऽत्यक्षः शरीरी ज्ञानविग्रहः॥४॥ अर्थ-प्राणीनिकै यह शरीर है सो तो पुद्गल परमाणूनका समूहकरि निपज्या है. बहुरि यह शरीरी आत्मा है सो उपयोगस्वरूप है सो अतीन्द्रिय है इन्द्रियगोचर नाही. कैसा है ? ज्ञानही है शरीर नाकै ऐसैं शरीर अर आत्मा अन्य अन्य है इनिकै अत्यन्त भेद है ॥
अन्यत्वं किं न पश्यन्ति जडा जन्मग्रहार्दिताः। यज्जन्ममृत्युसंपाते सर्वेणापि प्रतीयते ॥ ५ ॥
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