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जैन ग्रन्थरत्नाकरे.
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एकाकी पणाकूं प्राप्त हौं तिसही काल संसारका संबन्ध है सो स्वयमेव ही विशीर्ण होय जाय है छूटि जाय
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संसारका संबन्ध तो मोहतें है जब मोह जाता रहै तब आप एक है ही मोक्षकूं ही पावै ॥
अब एकत्वभावनाका वर्णन पूरा करे हैं सो सामान्यकरि कहै, हैं
मन्दाक्रान्ता छन्दः ।
एक: स्वर्गी भवति विबुधः स्त्रीमुखाम्भोजमङ्गः एकः श्वाभ्रं पिबति कलिलं छिद्यमानः कृपाणैः । एकः क्रोधाद्यनलकलितःकर्म बनात्यविद्वान् एक: सर्वावरणविगमे ज्ञानराज्यं भुनक्ति ॥ ११॥ अर्थ - यह आत्मा एकही आप देवांगना के मुखरूप - कमलनिका सुगन्ध लेनेवाला भ्रमरसारिखा देव भयासंता स्वगविषै जाय उपजै है . बहुरि एक ही आप कृपाण कहिये छुरी तरवार निकरि छेद्या विदारया नरकसम्बन्धी रुधिरकूं पी हैं . बहुरि एकही आप मूर्ख होकर क्रोधादि कषायरूप अग्निकरि ससहित हूवा कर्मनिकूं बांधै है. बहुरि एकही आप पंडित भया सन्ता सर्वकर्म आवरणका अभाव होतैसन्तै ज्ञानरूप राज्यकूं भोगवै है. भावार्थ आत्मा आपही एक स्वर्ग जाय है आपही नरक जाय है आप कर्म बांधे है आपही केवलज्ञानपाय मोक्ष जाय है. यह एकत्वभावनाका संक्षेप हैं.
१ नष्ट.
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