________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जैनग्रन्थरत्नाकरे. जन्मविषै तथा मरणविषै बहुरि सुखदुःखकी विधिविषै अन्य-दूजा साथी नाहीं एकाकी ही भोगवै है । मित्रपुत्रकलत्रादिकृते कर्म करोत्ययम् । यत्तस्य फलमेकाकी भुङ्क्ते श्वभ्रादिषु स्वयम् ॥५॥
भाषार्थ-यह प्राणी मित्र पुत्र स्त्री आदिके कार्यकेअर्थि जो किछु बुरेभले कार्य करै है ताका फल नरक आदि गति विषै एकाकी आप ही भोगवै है. दूजा कोई बटावै नाहीं है।।
सहाया अस्य जायन्ते भोक्तुं वित्तानि केवलम् । नतु सोढुं स्वकर्मोत्था निर्दयां व्यसनावलीम् ॥६॥
भाषार्थ-यह प्राणी बुरे भले कार्यकार धन उपार्जे है ताके भोगनेकू तो याके साथी पुत्रमित्रादिक सर्वही होय हैं अर आप बुरे भले कर्म किये ताकार उपजी, जाको कोउ मटनेवाला वा रक्षक नाही ऐसी नरकादिककी तथा वर्तमानकी वेदना-पीडा ताकी पंक्ति, ताकू सहनेकू साथी कोई भी न होय है आप अकेला ही भोगवै है ॥ एकत्वं किं न पश्यन्ति जडा जन्मग्रहार्दिताः यज्जन्ममृत्युसम्पाते प्रत्यक्षमनुभूयते ॥ १४ ॥
भाषार्थ-आचार्य कहै है जो ए प्राणी संसाररूप पिशाच कार पीड़े हुये भी अपना एकपणाकू क्यों नाही देने है जो इस जन्म अर मरणके संपातविषै प्रत्यक्ष भोगिये है. आप
१ प्राप्तहोनेपर.
For Private And Personal Use Only