Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 39
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ जैन प्रन्थरत्नाकरे. अग्नि क्षारेजलादिक क्षुर- छुरा आदिकनिकार पीड़े घाते हुये दुःख भोगवै हैं . बहुरि कैसे हैं ? तिर्यंचनिविषै खेद दुःख अग्निकी शिखाका भारकारे भस्मरूप किये हुये पीड़ा पावै हैं. बहुरि मनुष्यनिधि भी अतुल्य खेदके वश भये दुःख भोगवै हैं. बहारे देवनिविषै रागकरि उद्धत भये पीड़ा पावै हैं ऐसें च्यारों ही गतिमैं दुःखही पावै हैं. संसारमें कहूं सुख है नाहीं ऐसें संसार भावनाका वर्णन किया || तौ याका संक्षेप ऐसा जो संसारका कारण अज्ञानभाव है ताकर परद्रव्यनिविषै मोहरागद्वेषप्रवर्त्ती है. ताकार कर्मबन्ध होय है. ताका फल यह च्यारि गतिनिका भ्रमण है सो कार्य है सो कारण कार्य दोऊंकूं संसार कहिये । इहां कार्यरूपसंसारका वर्णन विशेषकार किया है जातैं व्यवहारी प्राणी के कर्यसंसारका अनुभव विशेषकार है. परमार्थतें अज्ञानभाव ही संसार है । दोहा परद्रव्यन्तै प्रीति जो, है संसार अवोध । ताको फल गति च्यारि में भ्रमण को 2 इतिसंसारानुप्रेक्षा ॥३॥ शोध ॥ ३ ॥ अथ एकत्वानुप्रेक्षा लिख्यते । आगे एकत्वभावनाका व्याख्यान करे हैं तहां कहै हैं जो यह आत्मा सर्व अवस्थारूप एक ही होय है, For Private And Personal Use Only

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