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जैन ग्रन्थरत्नाकरे.
सर्वैः सर्वेऽपि संबन्धाः संप्राप्तादेहधारिभिः । अनादिकालसम्भ्रान्तैस्त्रसस्थावरयोनिषु ॥ ११ ॥ भावार्थ- — या संसारविषै देहधाराविषै जेते परस्पर संबंध हैं ते ते सर्व ही पाये हैं. पिता माता पुत्र स्त्री भाई इत्यादि संबंध हैं तनिक अनंतबार पाये ऐसा न रह्या है जो न पाया ॥
देवलोके नृलोके च तिरश्चि नरकेऽपि च । न सा योनिर्न तद्रूपं न तद्देशो न तत्कुलं ॥ १२ ॥ न त दुःखं सुखं किंचिन्नपर्यायः स विद्यते । यत्रेते प्राणिनः शश्वत् यातायातैर्न खण्डिताः॥ १३ भाषार्थ - या संसारविषै देवलोकविषै, बहुरि मनुष्य लोकविषै, बहुरि तिर्यञ्च बहुरि नरकविषै सो गोनि नाहीं,
सो रूप नाहीं, सो देश नाहीं, सो कुल नाही, सो दुःख नाही. बहुरि सो सुख किछू नाहीं सो पर्याय नाहीं नहाँ ए प्राणी निरंतर गमन आगमनकार भेदरूप नाही भये हैं. भावार्थ- सर्व ही अवस्था अनेकवार भोग है विना भोग्या किंछू भी नाहीं है ॥
न के बन्धुत्वमायाताः न के जातास्तव द्विषः । दुरन्तागाधसंसारपङ्कमग्नस्य नियम् ॥ १४ ॥ भाषार्थ हे प्राणी ! या संसाररूपदुरंत अथाह कर्दमविषै डूब रह्या जो तू तहां कोई रक्षक नाही ऐसे निर्दय जैसे होय तैसें तेरा बंधु पणाकूं कौन नाहीं प्राप्त भये ? सर्व ही हितू भये बहुरि शत्रु कौन २ न भये ? सर्वही भये. यह मति जाने जो शत्रुत्रपणा किछू और होना रह्या है ||
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