Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 40
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. महाव्यसनसंकीर्णे दुःख जूलनदीपिते । एकाक्येव भ्रमत्यात्मा दुर्गे भवमरुस्थले ॥ १ ॥ भाषार्थ -- यह आत्मा बडे कष्ट आपदा करिव्याप्त अर दुःखरूप अग्निकारे प्रज्वलित ऐसा अर दुर्गम- जामैं गमन बडे दुःख होय ऐसा संसाररूप मरुस्थल ताविषै एकाकी जाका दूना कोई सहाई नाहीं ऐसैं भ्रमै है । स्वयं स्वकर्मनिर्वृत्तं फलं भोक्तुं शुभाशुभम् । शरीरान्तरमादत्ते एकः सर्वत्र सर्वथा ॥ २ ॥ ३५ भाषार्थ – या संसार में यह आत्मा आप ही अपने कर्म कारे निपजाया जो शुभ तथा अशुभ फल ताके भोगनेंकू सर्व जायगाँ सर्व प्रकार कार एकला एक शरीर अन्य शरीरकूं ग्रहण करे है. दूजा कोई नहीं है ॥ २ ॥ संकल्पानन्तरोत्पन्नं दिव्यं स्वर्गसुखामृतम् । निर्विशन्त्ययमेकाकी स्वर्ग श्रीरञ्जिताशयः ॥ ३ ॥ भाषार्थ - बहुरि यह आत्मा एकाकी ही स्वर्गकी लक्ष्मी कार रंजायमान भया संता संकल्पमात्र चितवनमात्रकारि उपज्या देवोपनीत स्वर्गका सुखरूप भमृतकुं भोगवै है तहां भी दूजा नाहीं है । संयोगे विप्रयोगे च संभवे मरणेऽथवा । सुखदुःखविधौ वास्य न सरखान्योऽस्ति देहिनः ॥ ४ ॥ भाषार्थ - या प्राणीकै संयोगविषै तथा वियोगाविषै बहुरि For Private And Personal Use Only

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