Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. भूपः कृमिर्भवत्यत्र कृमिश्चामरनायकः । शरीरी परिवर्त्तत कर्मणा वञ्चितो बलात् ॥ १५ ॥ भाषार्थ - या संसारविषै प्राणी कर्मकार ठग्या वश हुवा राजा तौ मरि लट होय है अर लट मरिकार अनुक्रमतैं परंपरा देवनिका इन्द्र होय जाय है. ऐसे पलटिबो करै है . किल्लू नियामक नहीं है ॥ १९ ॥ ३३ माता पुत्री स्वसा भार्या सैवसम्पद्यतेऽङ्गिजा । पिता पुत्रः पुनः सोऽपि लभते पौत्रिकं पदम् ॥१६॥ भाषार्थ - या संसार विषै प्राणीकी माता तौ मरिकार पुत्री हो जाय है अर वहण मरिकरि स्त्री होय जाय है. बहुर सो स्त्री ही मरिकार आपके पुत्री होय जाय है. बहुरि पिता तै मरिकरि आपके पुत्र होय जाय है अर फेरि सो ही मरि पुत्रकै पुत्र हो जाय है. ऐसें पलाटे २ हूवा करै है || अब संसारभावनाकं पूर्ण करे हैं तहां सामान्यकरि कहै हैं, शार्दूलविक्रीडितछन्द | श्वभ्रे शूलकुठारयन्त्रदहनक्षारक्षुरव्याहतैस् तिर्यक्षु श्रमदुःखपावकशिखासंभारभस्मीकृतैः । मानुष्येऽप्यतुलप्रयासवशगैर्देवेषु रागोद्धतेः संसारेऽत्र दुरन्तदुर्गतिमये भ्रभ्यते प्राणिभिः || १७ भाषार्थ- - या दुर्निवार दुर्गातिमयी संसारविषै प्राणीनिकार भ्रमिये हैं. कैसे हैं प्राणी ! नरकविषै तौ शूली कुहाड़े घाणी ? For Private And Personal Use Only

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