Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 36
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. रूपाण्येकानि गृह्णाति त्यजत्यन्यानि सन्ततम् । यथा रङ्गेऽत्र शैलूषस्तथायं यन्त्रवाहकः ॥८॥ भाषार्थ-यह यन्त्रबाहक कहिये प्राणी है सो संसारविधै कई एक रूपकू तो ग्रहण करै है अर कई अन्यकू छोडै है ऐसे निरन्तर अन्य अन्य स्वांग धारै है. जैसैं नृत्यके अखामैं नाचनेवाला स्वांग धारै है तैसैं। या प्रकार संसारकी रीति है ॥ सुतीवासातसन्तप्ताः मिथ्यात्वातङ्कतर्किताः । पञ्चधा परिवर्तन्ते प्राणिनो जन्मदुर्गमे ॥९॥ भाषार्थ-या संसाररूप दुर्गम वनविषै प्राणी हैं ते मिथ्यात्वरूप आतंक दाहरोगकरि शंकित अतिशयरूप तीव्र असाता दुःखकरि अत्यन्त तप्तायमानभये पंचप्रकार परिवर्तनकरि भ्रमै हैं. अनेकबार अन्य अन्य पर्याय धारै हैं॥ आगे तिनि पंचप्रकारनिकू कहै हैं,द्रव्यक्षेत्र तथा कालभवभावविकल्पतः। संसारो दुःखसंकीर्णः पञ्चधेति प्रपञ्चितः॥१०॥ भाषार्थ-द्रव्य क्षेत्र तथा काल भव भावके भेदते यह संसार है सो पंचप्रकार विस्ताररूप कह्या है, सो कैसा है? दुःखनिकार व्याप्त है इनि पंचप्रकार परिवर्जनका स्वरूप विस्तारतै अन्यशास्त्रनितें जानना ॥ फेरि कहै हैं. For Private And Personal Use Only

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