Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० जैनग्रन्थरत्नाकरे. आगे आचार्य प्राणीनिकों आश्चर्य करि कहै हैं,शरीरं शोर्यते नाशा गलत्यायुर्न पापधोः। मोहः स्फुरति नात्मार्थः पश्य वृत्तं शरीरिणाम्॥२३ भाषार्थ-देखो प्राणीनिका यह प्रवर्तन आश्चर्य रूप है जो शरीर तो नित्य छीजै है अर आशा नाही छीजै है नित्य बधै है. बहुरि आयुर्वलतौ नित्य छीजै है घटै है अर पाप विषै बुद्धि वधै है. बहुरि मोह तौ नित्य स्फुरायमान होय है अर अपना अर्थ कल्याणमें नाहीं प्रवर्ते हैं ऐसा कोई अ. ज्ञानका माहात्म्य है ॥ आगे उपदेश करै हैं,यास्यन्ति निर्दया नूनं यद्दत्वादाहमूर्जितम् । हृदि पुसां कथं ते स्युस्तव प्रीत्यै परिग्रहाः ॥२४॥ भाषार्थ हे आत्मन् ! ए परिग्रह हैं ते जो पुरुषनिके हृदयविषै उत्कृष्ट दाह देकरि निश्चयतै जाते रहै हैं ते परिग्रह तेरे प्रीतिके अर्थ कैसे होय है ? यह विचारि. भावार्थतू वथा प्रीति मति करै ए रहनेके नाहीं ॥ ___ आग अज्ञानके निमित्त नरक आदिका दुःख सहेगा ऐसे अविद्यारागदुर्वारप्रसरान्धीकृतात्मनाम् । श्वभ्रादौ देहिनां नूनं सोढव्या सुचिरं व्यथा ॥ २५॥ १. घटै है. For Private And Personal Use Only

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