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जैन ग्रन्थरत्नाकरे.
प्रत्येकं गिलतोऽस्यनिर्दयवियः केनाप्युपायेन वै नास्मान्निःसरणं तवार्य कथमप्यत्यक्षवोधं विना ॥ १९ ॥ भाषार्थ हे आर्य सत्पुरुष ! इस कालरूपी सर्पके मुखदि विषै तीन भुवनके प्राणी निःशंक सोवै है कैसा है कालसर्पकामुख ? अन्त समय रूप दाढकरि चिह्नित है- युक्त है. बहुरि कैसा है ? भुवनत्रयका प्राणी कामरूप जहरका व्यापार फैलना ताकार मूर्ख मोहरूप होय निःशंक सोवै है. तहां न्यारे न्यारे प्राणीनिकूं गिलता जो यह निर्दयबुद्धिकाल ताके इस मुखतैं तेरै निकसना प्रत्यक्ष ज्ञान विना अन्य कोई ही उपाय कार्र तथा कोई ही प्रकारकार नाहीं है. निज ज्ञान स्वरूपका श रणालियां ही बचना है ऐसे अशरणभावनाका वर्णन किया.
याका संक्षेप ऐसा जो निश्चयकार तौ सर्व द्रव्य अपनी अपनी शक्तिके भोगनेवाले हैं कोऊ काहूका कर्त्ता हत्ती नाहीं । अर व्यवहारकारे निमित्तनैमित्तिकभाव देखि यह जीव परकूं शरणा कल्पै है सो यह मोहकर्म करके उदयका माहात्म्य है तातैं निश्चय विचारिये तत्र तौ अपना आत्माहीका शरण है अर व्यवहारिकार जे बीतराग भये ऐसे पंच परमेष्ठी तिनिका शरण है. ते वीतरागता के कारण हैं तातै अन्य सर्वका शरण छोडि ये दोय शरणा विचारणा । सोरठा
जगमें शरणा दोय, शुद्धातम अर पंचगुरु । आन कल्पना होय, मोहउदय जियके वृथा ॥ २ ॥ इति अशरणानुप्रेक्षा ॥ २ ॥
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