Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ द्वायशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. प्यारे सुखके देनेवाले पहिले उपजे थे, ते ही अत्र दुःख देनेवाले होय गये. ऐसें हे आत्मन् तू देखि ! ऐसा कोई नाही है जो शाश्वता सुखरूप ही रहै ।। अब सामान्यकरि कहै हैं,मोहाञ्जनमिवाक्षाणामिन्द्रजालोपमं जगत् । मुह्यत्यस्मिन्नयं लोको न विद्मः केन हेतुना ॥४५॥ भाषार्थ-यह जगत इन्द्रजाल सारिखा है प्राणीनिके नेत्रनिकू मोहिनी अंजन सारिखा है भुलावै है. और यह लोक है सो याविषै मोहळू प्राप्त होय है भुलै है तहां आचार्य कहै हैं हम नाहीं जानै हैं जो यहां कौन कारणकरि मूलै है. यह प्रबल मोहका ही महात्म्य है ॥ ये चात्र जगतीमध्ये पदार्थाश्चेतनेतराः । ते ते मुनिभिरुद्दिष्टाः प्रतिक्षणविनश्वराः ॥४६॥ भाषार्थ-या जगतविषे जे जे चेतन अर अचेतन पदार्थ हैं ते ते मुनिनिनै क्षणक्षणप्रति बिनाशीक कह हैं । यह प्राणी नित्यरूप मान है सो भ्रम है। ___ अब संक्षेपकार कहै हैं अर अनित्य भावनाके कथनकू संकोचे हैं,गगननगरकल्पं संगमं वल्लभानाम् जलदपटलतुल्यं यौवनं वा धनं वा । स्वजनसुतशरीरादीनि विद्युबलानि क्षणिकमिति समस्तं विद्धि संसारवृत्तम् ॥४७॥ For Private And Personal Use Only

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