Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 26
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१ द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. भाषार्थ---यह कालकी पाश है सो देव दानव मनुष्य धरणीश्वर इनके नायक इन्द्र हैं तिनिकरि भी दुर्द्धर है निवारी न जाय है ऐसी है. जीवनिकुं अधक्षणमात्रमैं बांध ले है याकू कोई निवारि सकै नाही ॥ अब कहै हैं यह काल अद्वितीय सभट है,--- जगत्रयजयी वीर एक एवान्तकः क्षणे। इच्छामात्रेण यस्यैते पतन्ति त्रिदशेश्वरांः ॥ ४ ॥ भाषार्थ-यह काल है सो तीन जगतका जीतनेवाला सुभट है सो अद्वितीय है, जाकी इच्छा मात्रकरि एक क्षणमें ए देवनिके इन्द्र हैं ते भी पड़े हैं च्युत होय हैं तहां अन्यकी कहा कथा ? ॥ आगें कहै हैं जे मृत्यु प्राप्त भयेका शोक करै हैं ते हैं IC शोच्यन्ते स्वजनं मूर्खाः स्वकर्मफलभोगिनम् । नात्मानं बुद्धिविध्वंसा यमद्रंष्ट्रान्तरस्थितम् ॥५॥ भाषार्थ--चुद्धिका है विध्वंस जिनिकै ऐसे मूर्ख प्राणी हैं ते अपने कर्मका फल भोगनेवाला जो स्वजन कुटुंबका जब आयुकर्म भोगि मरणकू प्राप्त भया ताका शोक करै है अर अपना आत्मा कालकी दाढिके मध्य प्राप्त है ताका शौच नाहीं करै है यह बडी मूर्खता है ॥ फेरि कहै हैं पूर्व बडे बडे पुरुष प्रलय भये हैं, For Private And Personal Use Only

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