Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. भाषार्थ-आचार्य उपदेश करै है जो हे प्राणी या संसारका परिवर्तन स्वरूप है ताहि तू ऐसा क्षणिक जाणि. सो कहा ? सो ही कहै हैं, ये बल्लभा जे प्यारी स्त्रीजन हैं तिनिका संगम तो आकाशविकै मायामयी नगर देवनिकार रच्या होय सो त्वरित विलय जाय तैसा जानि. बहुरि यह तेरै यौवन है तथा धन है सो जलद जो बादल ताका पटल तुल्य जानि, क्षणेकमें विघटि जाय है. बहारे स्वननपरिवारके लोक तथा पुत्र अर शरीर आदिक सर्व ही पदार्थ बीजली सारिखे चंचल जानि, तत्काल चिमककरि विलय जाय हैं. ऐसैं जगतकी व्यवस्था अनित्य जानि, नित्यकी बुद्धि मति कर यह उपदेश है ।। यहां विशेष इतना और जानना जो यह लोक षद्रव्य म्वरूप है सो द्रव्यदृष्टिकरि देखिये तब तो छहों द्रव्य अपने अपने स्वरूपरूप शाश्वते नित्य विराजै हैं. तथापि इनका पर्याय स्वभाव विभावरूप उपजै विनस है ते अनित्य हैं. तहां या प्राणीकै द्रव्यस्वरूपका तौ ज्ञान नाहीं अर पर्यायहीकू वस्तुस्वरूप मानि तिनिविषै नित्यताकी बुद्धि कार ममत्व राग द्वेष करै है तिस कारणते याकू यह उपदेश है जो पर्याय बुद्धिका एकान्त छोड़ि द्रव्यदृष्टिकरि अपना म्वरूपकू कथंचित् नित्य जानि तिसका ध्यान करि लयकू प्राप्त होय करि वीतरागविज्ञान दशाकों प्राप्त होय. ऐसा आशय जानना । ऐसें अनित्य भावनाका वर्णन किया । For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86